Thursday, August 9, 2012

ऐसी कितनी कब्रें बनी हुई है आसपास जहाँ हम अपने आप को पाते है .....देखते है तो पता चलता है कि इन्तजार की कहनियाँ लंबी होते होते सो गयीं है ....बस आवाज ही है जो भटक रही है अभी भी

चिनारों के पत्तों से बर्फ का उतरना
मन से किसी को उतार दिए जाने सा दिखा ..
तुम याद तो बहुत आये...पर
चिटकते ख्वाबों से फिर......कोई शोर न उठा .....
बुझती आवाजें कांच की किरचों सी
घाव में समां गयीं...
.रिसते जख्मों का फिर कोई हिसाब न मिला
क्योंकी .....
स्याह आसमां की छाती पे
एक टुकड़ा दर्द का..
टाँक गए हो तुम .....!

उदासी के समंदर को खंगाल कर ....जो यादें मोती बन ढूलक रहीं है..उनकी बारिश को कलेजे से लगाकर उसे धड़कन में रख लेना..होता है ! बस.....और फिर इसके बाद सब कुछ...है...और कुछ भी नहीं है...................