Saturday, May 7, 2011

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तुम्हारी बेरुखी गर्म लू के थपेडों सी ......झुलसा रही है ...
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सारा समंदर बैंगनी से रंग के विषाक्त पानी में तब्दील 
हो गया है ....... 


पेडों से पत्तियां बिलख बिलख कर जुदा हो रही हैं  


आज कैम्पियन के उसी मोड जाकर खड़े होना ...और बिलखते हुए इन दर्दों को महसूस करना ....


समेट  पाना तो समेट लेना अपने दामन में उनके आंसू ... 
सारी  उम्र का दर्द ले बैठे है ...जीना तो है ही ....रोकर ही सही .......