दुशाला.......................
चिमनी   से  निकलते.... धुंए की  तरह ..सुस्त ..थकी ..बेरंग और दिशाहीन ....हो  चलीं है  ....जलती बुझती ..यादें ...क्यों हो जाता है सब कुछ यूँ ही  ....अनायास ही  ...रंग फीके पड़ने लगतें है ......धुप कुनकुनी सी होती  तो  है ...पर .खोती  जाती है ..गर्माहट ..! बातें .....धडकती ...तो है .पर सहम   सी जातीं  है  ...!
इन्तजार    गुलमोहर के खिलने का ......कागजों में लिखी कहानियों में ढल जाता है   ...दबी ..मासूम.... कातर... सी एक पुकार .. ...पीछा करती है ...!आवाजें दूर   से ...मरी -मरी सी ...पहचान  खोती  सी  ....ढलानों पे उतरती धूप बन चेहरे   को पीला करती जातीं है ... 
खूबसूरत...रंगों   को चुन चुन कर बनाई ... जो दुशाला ...तुम ओढा कर गए थे .......पसरी है आज   भी मेरे बदन पर ...यूँ ही ............ बस कुछ ... चितकबरे से निशां  फैलने  लगें हैं....उसपर !. रंगहीन फूल.... थोड़े कांटे.. और ...जंगली घास   ..........खुदबखुद  उग आयी  है ... ...सच ही है शायद ये ...
शुरू तो होतें है बहुत से सफर साथ साथ ..
हाथ तेरा हर बार हाथ में हो जरूरी तो नहीं
शुरू तो होतें है बहुत से सफर साथ साथ ..
हाथ तेरा हर बार हाथ में हो जरूरी तो नहीं



