ऐसी कितनी कब्रें बनी हुई है आसपास जहाँ हम अपने आप को पाते है .....देखते है तो पता चलता है कि इन्तजार की कहनियाँ लंबी होते होते सो गयीं है ....बस आवाज ही है जो भटक रही है अभी भी
चिनारों के पत्तों से बर्फ का उतरना
मन से किसी को उतार दिए जाने सा दिखा ..
तुम याद तो बहुत आये...पर
चिटकते ख्वाबों से फिर......कोई शोर न उठा .....
बुझती आवाजें कांच की किरचों सी
घाव में समां गयीं...
.रिसते जख्मों का फिर कोई हिसाब न मिला
क्योंकी .....
स्याह आसमां की छाती पे
एक टुकड़ा दर्द का..
टाँक गए हो तुम .....!
उदासी के समंदर को खंगाल कर ....जो यादें मोती बन ढूलक रहीं है..उनकी बारिश को कलेजे से लगाकर उसे धड़कन में रख लेना..होता है ! बस.....और फिर इसके बाद सब कुछ...है...और कुछ भी नहीं है...................
माँ ..हैं ..न...इसीलिए ...तड़प रहें है ...बच्चों पर क्यूँ निकला .....सारा गुस्सा .....बेटे की पिटाई करने के बाद कितनी देर तक कमरा बंद कर..... योग करने के बहाने रोते रहे.......! मारा भी क्यों..... क्योंकी ...आजकल ठीक से खाना नहीं खा रहा है ...बस हर बार कोई न कोई बहाना निकाल लेता है ....कभी कहता है गोभी पसंद नहीं ...भिन्डी ...खाना नहीं ....मेथी कड़वी लगती है ...सेम में कुछ धागा.... धागा सा मुंह में आता है ...बैगन का टेस्ट बहुत बेकार लगता है .......अभी सोयाबीन की सब्जी बनाई तो रो- रो कर खा रहा था ...बस गुस्सा आयी तो एक थप्पड़ लगा दिया ...पर ऐसा लगा जैसे खुद का दिल जख्मी कर लिया हो ...! रोज टिफिन में परांठा छोड़ देता है ....तकलीफ इस बात की है कि रोज सुबह जल्दी जल्दी.... भाग भाग कर .... साढ़े चार बजे से सीधे कढाई..में ही गिरते हैं ...उठकर बच्चों के लिए टिफिन तैयार करतें है और खुद साढ़े छः बजे घर छोड़ देते हैं ...और बच्चे ...ठीक से खाना भी नहीं खाते ...! नाश्ता बना कर टेबल पर रख जातें है ....और गेट से निकलते-- निकलते दस... दस बार चिल्ला कर कह कर जातें है ...के बच्चों नाश्ता करके जाना ...पर जब तीन बजे घर लौट कर आतें है तो मम्मीजी बतातीं हैं कि दोनों तो बस दूध पीकर स्कूल चले गए !....मन रोने रोने जैसा हो जाता है ....दुःख इस बात का होता है ..कि जिस दिन मेरी छुटटी होती है .. बच्चे नाश्ता भी करके जातें है ...और बहुत खुश दिखतें है ......पर मेरे न होने पर कोई नहीं होता जो इन्हें हाथ में दूध का ग्लास दे ..और साथ में परांठा ...गोल करके हाथ में पकड़ा सके ..... मन बुझता जाता है ....जो सुख इन्हें मिलना चाहिए वो हम नहीं दे पा रहें है ...पर इसकी भरपाई करने की कोशिश ...स्कूल से आने के बाद ...साथ में ..सामने बिठा कर खाना खिला कर पूरी करते हैं ...!सोचतें है ...अगर हमें कुछ हो गया तो मेरे बच्चों को कौन देखेगा ...कौन उनका ख्याल रखेगा .....ये सच है ...पिता कभी माँ के प्यार की भरपाई नहीं कर सकेगा ....!
जब पुरुष स्त्री पर हावी होने लगता है ...तो ये सम्बन्ध या तो हमेशा पीड़ा देते है या तो टूट जातें हैं.................... तकलीफ ...दर्द आंसू ...जुदा नहीं हैं ....सब साथ हैं.... भटकन ..है ...ढहाने वाली.... और तडपन है ...चैन न लेने देने वाली ....!
चिमनी से निकलते.... धुंए की तरह ..सुस्त ..थकी ..बेरंग और दिशाहीन ....हो चलीं है ....जलती बुझती ..यादें ...क्यों हो जाता है सब कुछ यूँ ही ....अनायास ही ...रंग फीके पड़ने लगतें है ......धुप कुनकुनी सी होती तो है ...पर .खोती जाती है ..गर्माहट ..! बातें .....धडकती ...तो है .पर सहम सी जातीं है ...!
इन्तजार गुलमोहर के खिलने का ......कागजों में लिखी कहानियों में ढल जाता है ...दबी ..मासूम.... कातर... सी एक पुकार .. ...पीछा करती है ...!आवाजें दूर से ...मरी -मरी सी ...पहचान खोती सी ....ढलानों पे उतरती धूप बन चेहरे को पीला करती जातीं है ...
खूबसूरत...रंगों को चुन चुन कर बनाई ... जो दुशाला ...तुम ओढा कर गए थे .......पसरी है आज भी मेरे बदन पर ...यूँ ही ............ बस कुछ ... चितकबरे से निशां फैलने लगें हैं....उसपर !. रंगहीन फूल.... थोड़े कांटे.. और ...जंगली घास ..........खुदबखुद उग आयी है ... ...सच ही है शायद ये ...
शुरू तो होतें है बहुत से सफर साथ साथ ..
हाथ तेरा हर बार हाथ में हो जरूरी तो नहीं